संपादकीय:
◼️उमर ख़ालिद:बिना ट्रायल के पाँच साल की कैद,
◼️माँ की मुलाक़ात और रिहाई की माँग तेज़,
◼️भारत की न्याय व्यवस्था पर एक गंभीर सवाल..
नई दिल्ली : जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) के पूर्व छात्र और सामाजिक कार्यकर्ता उमर ख़ालिद की बिना मुकदमे या जमानत के पाँच साल की कैद न केवल एक व्यक्ति की व्यक्तिगत त्रासदी है, बल्कि भारत की न्याय व्यवस्था और संवैधानिक मूल्यों पर एक गंभीर सवाल है। 14 सितंबर 2020 को दिल्ली पुलिस के विशेष प्रकोष्ठ द्वारा गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत गिरफ्तार किए गए ख़ालिद पर 2020 के उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों में "मुख्य साजिशकर्ता" होने का आरोप है, जिसमें 53 लोग मारे गए थे, जिनमें अधिकांश मुस्लिम थे। पाँच साल बाद भी, उनके ख़िलाफ़ मुकदमा शुरू नहीं हुआ है, और बार-बार जमानत याचिकाएँ खारिज होने से यह मामला कठोर क़ानूनों के दुरुपयोग और न्यायिक प्रक्रिया में देरी का प्रतीक बन गया है।
माँ की मुलाक़ात: मानवीयता और अन्याय का टकराव
8 जुलाई 2025 को उमर की माँ सबीहा ख़ानम की तिहाड़ जेल में अपने बेटे से मुलाक़ात ने इस मामले को एक मानवीय आयाम दिया। सबीहा ने बताया कि दो हफ़्तों तक तकनीकी ख़राबी के कारण उमर के साथ वीडियो कॉल बंद होने से वह बेचैन थीं। जामिया से तिहाड़ का थकाऊ सफ़र तय कर, लंबी क़तारों, सख़्त जाँच और जेल नंबर 2 तक पैदल चलने के बाद वह बेटे से मिलीं। काँच की दीवारों और सलाखों के बीच इंटरकॉम से हुई बातचीत में उमर ने एक छोटा सा फूल भेंट किया, जो उन्होंने जेल के पेड़ से तोड़ा था। यह फूल सबीहा के लिए अनमोल था, जो उनके बेटे की मज़बूती और उम्मीद का प्रतीक बना।
उमर ने परिवार का हाल पूछा, पिता को ज़्यादा सफ़र न करने की सलाह दी, और जेल की ज़िंदगी के क़िस्से सुनाए। पाँच साल की कैद में उन्होंने 300 से ज़्यादा किताबें पढ़ी हैं, और उनके अच्छे व्यवहार ने जेल स्टाफ का सम्मान हासिल किया है। सबीहा ने कहा, "मेरा बेटा बेगुनाह है। यह लड़ाई सिर्फ़ उमर की नहीं, बल्कि इंसाफ़ की है।" यह मुलाक़ात एक माँ की पीड़ा और एक बेटे की हिम्मत की कहानी है, लेकिन साथ ही यह सवाल उठाती है कि क्या भारत की न्याय व्यवस्था इस मानवीयता को सुन रही है?
क़ानूनी लड़ाई: जमानत की राह में बाधाएँ
दिल्ली पुलिस ने 2020 के दंगों के बाद 2,500 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया, जिनमें ख़ालिद और 17 अन्य पर "बड़ी साजिश" का आरोप लगाया गया। पुलिस का दावा है कि ख़ालिद ने भड़काऊ भाषण दिए और CAA-NRC विरोधी प्रदर्शनों में हिंसा भड़काने के लिए दूसरों के साथ मिलकर काम किया। हालांकि, ख़ालिद और उनके वकील इन आरोपों को खारिज करते हैं, यह तर्क देते हुए कि उनके ख़िलाफ़ कोई ठोस सबूत नहीं है। कई सह-आरोपियों को जमानत मिल चुकी है, लेकिन ख़ालिद की याचिकाएँ बार-बार खारिज हुई हैं।
मार्च 2022 में कड़कड़डूमा कोर्ट, अक्टूबर 2022 में दिल्ली हाई कोर्ट और मई 2024 में ट्रायल कोर्ट ने उनकी जमानत ठुकरा दी। सुप्रीम कोर्ट में उनकी याचिका को 11 महीनों में 14 बार स्थगित किया गया, और फरवरी 2024 में उन्होंने "बदली हुई परिस्थितियों" का हवाला देते हुए याचिका वापस ले ली। उनकी याचिका अब दिल्ली हाई कोर्ट में लंबित है। ख़ालिद को केवल दो बार अंतरिम जमानत मिली—2022 और 2024 में, दोनों बार सात-सात दिन की, परिवार की शादियों के लिए।
सुप्रीम कोर्ट का रुख और विरोधाभास
सुप्रीम कोर्ट ने हाल के फैसलों में दोहराया है कि "जमानत नियम है, जेल अपवाद" का सिद्धांत UAPA मामलों पर भी लागू होता है। अगस्त 2024 में जस्टिस अभय एस. ओका और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने कहा कि योग्य मामलों में जमानत से इनकार मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। जुलाई 2024 में जस्टिस जेबी पारदीवाला और उज्जल भुयान ने भी जमानत को सजा के रूप में रोकने के ख़िलाफ़ चेतावनी दी। फिर भी, ख़ालिद की जमानत याचिकाएँ बार-बार खारिज हो रही हैं, जिसे वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने सुप्रीम कोर्ट की "बहुपक्षीय" प्रकृति से जोड़ा। उन्होंने कहा, "ख़ालिद की याचिका शायद उस पीठ के समक्ष नहीं आई, जिसने हाल ही में स्वतंत्रता समर्थक फैसले दिए।"
सामाजिक और राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ
ख़ालिद की लंबी कैद ने सामाजिक और राजनीतिक हलकों में गहरी बहस छेड़ दी है। सोशल मीडिया पर उनकी रिहाई की माँग तेज़ है। वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने लिखा, "बेल नियम और जेल अपवाद। उमर ख़ालिद और गुलफिशां फ़ातिमा पर कब लागू होगा?" कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने सवाल उठाया, "मुस्लिम नौजवानों को बिना ट्रायल के जेल में क्यों रखा गया? क्या अमित शाह और नरेंद्र मोदी को उनके चेहरे पसंद नहीं?" राजनीतिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने इसे "न्याय व्यवस्था और संविधान पर दाग" बताया। ख़ालिद की साथी बनोज्योत्सना लाहिड़ी ने कहा, "उमर ने हमेशा नफरत के जवाब में प्यार की वकालत की। बिना सुनवाई के सालों की कैद अन्याय है।"
न्याय व्यवस्था पर सवाल
वरिष्ठ अधिवक्ता संजय घोष ने ख़ालिद की कैद को "न्याय का उपहास" बताते हुए कहा कि हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के कई आरोपियों को उनसे पहले जमानत मिल चुकी है। वकील सौतिक बनर्जी ने इस मामले को संवैधानिक अदालतों के लिए एक टेस्ट केस बताया, जो UAPA के वैधानिक प्रतिबंधों के ख़िलाफ़ मौलिक अधिकारों की रक्षा की माँग करता है। उन्होंने कहा, "ऐसे मामले में, जहाँ मुकदमा जल्द समाप्त होने की संभावना नहीं, पाँच साल की पूर्व-परीक्षण कैद अनुच्छेद 21 के तहत अधिकारों को गंभीर रूप से कम करती है।"
UAPA और असहमति का दमन
UAPA जैसे कठोर क़ानूनों का इस्तेमाल असहमति को दबाने के लिए एक हथियार के रूप में देखा जा रहा है। ख़ालिद का मामला इस बात का उदाहरण है कि कैसे अस्पष्ट और व्यापक आरोपों के आधार पर लंबी कैद संभव हो सकती है। उनके समर्थकों का तर्क है कि यह न केवल ख़ालिद की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन है, बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण विरोध के अधिकार पर भी हमला है।
निष्कर्ष: इंसाफ़ की पुकार
उमर ख़ालिद की माँ की मुलाक़ात और उनकी लंबी कैद ने एक बार फिर न्याय, स्वतंत्रता और संवैधानिक मूल्यों पर बहस को जन्म दिया है। यह मामला न केवल एक व्यक्ति की कहानी है, बल्कि भारत की न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता और निष्पक्षता की परीक्षा भी है। जब तक ख़ालिद जैसे लोग बिना मुकदमे के जेल में रहेंगे, तब तक "जमानत नियम है, जेल अपवाद" का सिद्धांत महज कागज़ी वादा ही रहेगा। यह समय है कि न्यायपालिका इस मामले में तेज़ी से हस्तक्षेप करे और यह सुनिश्चित करे कि इंसाफ़ की जीत हो, न कि अन्याय की।
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